صفورہ زرگر
گھنا اندھیرا
تھا چاروں جانب
دکھائی دیتا نہ رستہ کوئی
طلوعِ سورج کے منتظر سب
اسی جگہ پر ٹھہر گئے تھے
مگر وہ تنہا
نکل پڑی تھی
اسے پتہ تھا
کہ اپنے حصے کی روشنی کو
تلاش کرنا پڑیگا خود ہی
یہاں اجالا کبھی نہ ہوگا
گھنے درختوں کے درمیاں کیا
کرن کبھی بھی پہنچ سکی ہے
کبھی نہ منزل ملے گی ہم کو
تلاش _ منزل کی جستجو میں
کسی کو ہمت تو کرنی ہوگی
قدم وہ اپنا بڑھا رہی تھی
عجب لگن تھی غضب کی دھن تھی
یقیں کو آنچل میں اپنے باندھے
ہزار مشکل سے لڑ پڑی تھی
فلک نظر میں سما چکا تھا
سراغ _ منزل وہ پا چکی تھی
تبھی اچانک
کسی نے اس کو دبوچا , کھینچا
عجب ہی رستے پر لے چلا تھا
وہ بے خبر تھی
اندھیرا آنکھوں کو ڈس رہا تھا
ہجومی وحشت کی آہٹوں کو وہ سن رہی تھی
ہزار تہمت کے تیر جاں میں گڑے ہوۓ ہیں
وہ اب قفس میں ہے قید لیکن
لبوں پہ مسکان یے یقیں کا
جلاٸ تھی جو مشال اس نے
بجھی نہیں ہے
نہیں بجھے گی ۔۔۔!
شبنم فردوس
08/06/20
सफूरा जरगर
घना अंधेरा था
चारों जानिब
दिखाई देता ना रस्ता कोइ
तलूए सूरज के मुंतज़िर सब
उसी जगह पर ठहर गए थे
मगर वह तन्हा
निकल पड़ी थी
उसे पता था
के अपने हिस्से की रोशनी को
तलाश करना पड़ेगा खुद ही
यहां उजाला कभी ना होगा
घने दरख़्तों के दरमियां क्या
किरण कभी भी पहुंच सकी है
कभी न मंजिल मिलेगी हमको
तलाशें मंजिल की जुस्तजू में
किसी को हिम्मत तो करनी होगी
कदम वह अपना बढ़ा रही थी
अजब लगन थी गज़ब की धुन थी
यकीं को आंचल में अपने बांधे
हज़ार मुश्किल से लड़ पड़ी थी
फलक नज़र में समा चुका था
सुरागे मंजिल वह पा चुकी थी
तभी अचानक
किसी ने उसको दबोचा,
खींचा
अजब ही रास्ते पर ले चला था
वह बेखबर थी
अंधेरा आंखों को डस रहा था
हुजूमी वहशत की आहटौ को
वह सुन रही थी
हज़ार तोहमत के तीर जां में गड़े हुए है
वह अब क़फ़स में है क़ैद लेकिन
लबों पे मुस्कान है यकीं का
जलाई थी जो मशाल उसने
बुझी नहीं है
नहीं बुझेगी
शबनम फिरदौस
08/06/ 20
Labels: poetry, safura zergar, shabnam firdaus, अंधेरा मुंतजिर, रस्ता, सफूरा जरगर, सुरज
2 Comments:
Wow great lines ....Shabnam
بہت بہت شکریہ
سلامت رہیں
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