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Showing posts from September, 2022

Ghazal _ zindagani javedani bhi nahi by Amjad Islam Amjad

زندگانی جاودانی بھی نہیں لیکن اس کا کوئی ثانی بھی نہیں ہے سوا نیزے پہ سورج کا علم تیرے غم کی سائبانی بھی نہیں منزلیں ہی منزلیں ہیں ہر طرف راستے کی اک نشانی بھی نہیں آئنے کی آنکھ میں اب کے برس کوئی عکس مہربانی بھی نہیں آنکھ بھی اپنی سراب آلود ہے اور اس دریا میں پانی بھی نہیں جز تحیر گرد باد زیست میں کوئی منظر غیر فانی بھی نہیں درد کو دل کش بنائیں کس طرح داستان غم کہانی بھی نہیں یوں لٹا ہے گلشن وہم و گماں کوئی خار بد گمانی بھی نہیں امجد اسلام امجد  ज़िंदगानी जावेदानी भी नहीं लेकिन इस का कोई सानी भी नहीं है सवा-नेज़े पे सूरज का अलम तेरे ग़म की साएबानी भी नहीं मंज़िलें ही मंज़िलें हैं हर तरफ़ रास्ते की इक निशानी भी नहीं आइने की आँख में अब के बरस कोई अक्स-ए-मेहरबानी भी नहीं आँख भी अपनी सराब-आलूद है और इस दरिया में पानी भी नहीं जुज़ तहय्युर गर्द-बाद-ए-ज़ीस्त में कोई मंज़र ग़ैर-फ़ानी भी नहीं अमजद इस्लाम अमजद  दर्द को दिलकश बनाएँ किस तरह दास्तान-ए-ग़म कहानी भी नहीं यूँ लुटा है गुलशन-ए-वहम-ओ-गुमाँ कोई ख़ार-ए-बद-गुमानी भी नहीं अमजद इस्लाम अमजद

Ghazal (गजल )- Poet _Aanis Moin इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें

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اک کرب مسلسل کی سزا دیں تو کسے دیں مقتل میں ہیں جینے کی دعا دیں تو کسے دیں پتھر ہیں سبھی لوگ کریں بات تو کس سے اس شہر خموشاں میں صدا دیں تو کسے دیں ہے کون کہ جو خود کو ہی جلتا ہوا دیکھے سب ہاتھ ہیں کاغذ کے دیا دیں تو کسے دیں سب لوگ سوالی ہیں سبھی جسم برہنہ اور پاس ہے بس ایک ردا دیں تو کسے دیں جب ہاتھ ہی کٹ جائیں تو تھامے گا بھلا کون یہ سوچ رہے ہیں کہ عصا دیں تو کسے دیں آنس معین इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें मक़्तल में हैं जीने की दुआ दें तो किसे दें पत्थर हैं सभी लोग करें बात तो किस से इस शहर-ए-ख़मोशाँ में सदा दें तो किसे दें है कौन कि जो ख़ुद को ही जलता हुआ देखे सब हाथ हैं काग़ज़ के दिया दें तो किसे दें सब लोग सवाली हैं सभी जिस्म बरहना और पास है बस एक रिदा दें तो किसे दें जब हाथ ही कट जाएँ तो थामेगा भला कौन ये सोच रहे हैं कि असा दें तो किसे दें बाज़ार में ख़ुशबू के ख़रीदार कहाँ हैं ये फूल हैं बे-रंग बता दें तो किसे दें आनिस  मुईन 

Ghazal (गजल) _Poet _Gulzar

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आँखों में जल रहा है प बुझता नहीं धुआँ उठता तो है घटा सा बरसता नहीं धुआँ पलकों के ढाँपने से भी रुकता नहीं धुआँ कितनी उँडेलीं आँखें प बुझता नहीं धुआँ आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआँ काली लकीरें खींच रहा है फ़ज़ाओं में बौरा गया है मुँह से क्यूँ खुलता नहीं धुआँ आँखों के पोछने से लगा आग का पता यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ चिंगारी इक अटक सी गई मेरे सीने में थोड़ा सा आ के फूँक दो उड़ता नहीं धुआँ Gulzar آنکھوں میں جل رہا ہے پہ بجھتا نہیں دھواں اٹھتا تو ہے گھٹا سا برستا نہیں دھواں پلکوں کے ڈھانپنے سے بھی رکتا نہیں دھواں کتنی انڈیلیں آنکھیں پہ بجھتا نہیں دھواں آنکھوں سے آنسوؤں کے مراسم پرانے ہیں مہماں یہ گھر میں آئیں تو چبھتا نہیں دھواں چولھے نہیں جلائے کہ بستی ہی جل گئی کچھ روز ہو گئے ہیں اب اٹھتا نہیں دھواں کالی لکیریں کھینچ رہا ہے فضاؤں میں بورا گیا ہے منہ سے کیوں کھلتا نہیں دھواں آنکھوں کے پوچھنے سے لگا آگ کا پتہ یوں چہرہ پھیر لینے سے چھپتا نہی